| | | عجبت لإنسان يراحم رحمانا |
| 1 | | | *** | | فأوسعَ | أهلَ | الأرضِ | روحاً | وريحاناً |
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| 2 | | | فقامَ | لهُ | الإيمانُ | بالغيبِ | ناصحاً |
| *** | | فأرسلَ | دَمعَ | العينِ | للغيب | طُوفانا |
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| 3 | | | فعارضه | علمُ | الحقائقِ | مُفصحاً |
| *** | | بصورةِ | من | سوَّاه | أصبحَ | رحمانا |
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| 4 | | | وأنزلهُ | في | الأرضِ | وجهاً | خليفةً |
| *** | | على | الملأ | الأعلى | وسمَّاه | إنسانا |
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| 5 | | | فلمْ | يكُ | هذا | منهُ | دعوىً | أتى | بها |
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| 6 | | | وشرفه | بالشحِّ | إذْ | كانَ | مانعاً |
| *** | | فكانَ | النقصانُ | فضلاً | وإحسانا |
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| 7 | | | فلوْ | لمْ | يكنْ | في | الكونِ | نقصٌ | محققٌ |
| *** | | لكانَ | أخيّ | النقصِ | يخسر | ميزانا |
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| 8 | | | ولم | يك | مخلوقاً | على | الصورة | التي |
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| 9 | | | فمنْ | كانَ | بالنقصانِ | أصلُ | كمالهِ |
| *** | | فلا | بدَّ | أنْ | يعطيكَ | ربحاً | وخسرانا |
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| 10 | | | *** | | فأصبحَ | كالميزان | بالحمدِ | ملآنا |
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| 11 | | | *** | | من | أذكارهِ | في | كلِّ | شيءٍ | وإنْ | هانا |
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| 12 | | | فما | هانَ | في | الأذكارِ | إلا | لعزةٍ |
| *** | | يميلُ | بها | عنهمْ | مكاناً | وإمكانا |
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| 13 | | | وآخرُ | دعوانا | أنْ | الحمدُ | فاستمعْ |
| *** | | وما | ثَمَّ | قولٌ | بعدَ | آخرِ | دَعوانا |
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| 14 | | | إذا | جاءتِ | الأذكارُ | للعدلِ | تبتغي |
| *** | | مفاضلةً | يأتينَ | رجلاً | وركبانا |
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| 15 | | | فيظهرُ | فضلُ | الحمدِ | إذ | كنَّ | سوقةً |
| *** | | وكان | وجودُ | الحمد | فيهنَّ | سُلطانا |
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| 16 | | | تأملْ | فإني | أعلمُ | الخلقِ | بالذي |
| *** | | أتيتُ | بهِ | علماً | صحيحاً | وإيمانا |
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